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[Ank 10] Badon ka Anubhav aur Unki Seekh


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नमस्ते दोस्तों, मैं हूँ आपका नया दोस्त Mr.Meowth और मैं आज एक बहुत ही अच्छी कहानी आप सब के लिए लाया हूँ। पढ़ना चाहोगे? हाँ, तो पढ़ते रहो। नहीं? तब भी पढ़ते रहो। 

 

प्रिय पाठकों, ये कहानी मैंने रची है, और इस कहानी का असल ज़िंदगी से या किसी भी मनुष्य से कोई नाता नहीं है। इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक है। अगर आपको लगता है की ये कोई फिल्म है तो आप गलत नहीं है। :P

 

 

आज भी। आज भी कोई मेरी बातों पर ध्यान नहीं देता, जब मैं उन्हें सलाह देता हूँ। क्यों? क्यों होता है ऐसे ? मैं चाहकर भी किसी की मदत नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि किसी को भी मेरी बातों से अंतर नहीं पड़ता। उस वक्त भी, जब मैं जवान था, और आज भी, जब मैं एक वृद्ध हूँ।

आज की युवा पीढ़ी ये समझ नहीं रही है की उनके प्राणों का क्या मूल्य है। कोई भी विचार नहीं करता कि 'अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरे माता-पिता का क्या होगा ?' सब अपनी ज़िंदगी ख़ुशी से बिताना चाहते है, ऐशोआराम चाहते है। इस दौर का शिकार मैं भी होता था, पर मैं उस हद तक नहीं गिरा, जिस हद में मैं आज लोगों को गिरते देख रहा हूँ।

प्रश्न ये है, की हम कब बदलेंगे। हमें खुद में बदलाव लाना होगा, और अपनी कमियों को दूर करना होगा। लेकिन ऐसी सोच बहुत काम लोगों की होती है।
आज मैं जो कहानी आपको सुनाने वाला हूँ, उसमें आप देखेंगे की कैसे मासूम जानें लापरवाही के कारण जाती हैं।

मैं ११ साल का छोटा सा बालक था। अपने पिताश्री के साथ मैंने पहली बार ट्रैन का सफर किया। स्टेशन आते ही सभी लोग उतरने की जल्दबाज़ी कर रहे थे। मुझे लगा की शायद ट्रैन अधिक समय तक स्टेशन में नहीं रुकेगी , इसलिए मैं स्वयं भी उसी भीड़-भाड़ में जाने लगा। मेरे पिताश्री ने मुझे रोका और कहा, "ये क्या कर रहे हो ? अगर गिर गए तो ? उन्हें उतरना है, तो उतरने दो। उन्हें पता नहीं किस की जल्दी है , अगर एक मिनट की देरी हो जाये तो कुछ नहीं होता। शिक्षक की डाँट का मूल्य हमारे प्राणों से तो काम है। अगर डाँट भी खानी पड़े तो ठीक है। " मैं हैरान था, की ट्रैन इतने समय तो रुकी, की सभी यात्री आराम से उतर सकें।
लेकिन सभी यात्रिओं को बहुत जल्दी थी, पता नहीं वे कहाँ जाना चाहते थे। उस वक्त जो पिताश्री ने मुझे बताया, वो मेरे ज़ेहम में सदा-सदा के लिए बैठ गया।
कई साल बीत गए। मेरी विद्यालय की शिक्षा पूर्ण हो गयी और अब महा विद्यालय, अर्थात कॉलेज का आरंभ होने वाला था। अर्थात, रोज वही भीड़-भाड़ वाली ट्रैन का सफर। पिताजी के दिए हुए ज्ञान को ध्यान में रखते हुए, मैंने कभी भी जल्दबाज़ी नहीं की और स्वयं को सुरक्षित रखने की कोशिश की। कुछ महीनों बाद मेरे सहपाठी मेरे साथ सफर करने लगे। पर वे, मेरे स्वभाव से विपरीत थे। उन्हें भी बाकियों जैसी ही जल्दी थी, और वो हमेशा द्वार के किनारे लटकते रहते थे।
मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने।

एक दिन वो हुआ जिसका मुझे , और मेरे पिताश्री को दर था। एक छोटा सा स्टेशन है , जिसका प्लेटफार्म थोड़ा सा मुड़ा हुआ है, और जिसमें ट्रैन और पुल की दूरी बहुत काम है। मेरे दोस्त लटकते रहे। ३ दोस्त पुल को देख कर पीछे हैट गए, पर एक खंबे से लटका हुआ था और इसलिए वो समय पर भीतर नहीं आ पाया, और उसकी जान चली गयी। सोचकर आज भी बहुत दुःख होता है, भले ही वो थोड़ा सा बुरा था, पर था तो वो मेरा ही दोस्त न ? ना जाने क्यों, मुझे उसकी मृत्यु का सबसे अधिक दुःख हुआ और मुझे आज भी ऐसा प्रतीत होता है की मैं ही उसका गुन्हेगार हूँ।

वक्त बीतता गया और मेरी भी उम्र हो गयी। मैं ५० साल का हो चूका था। वो हातसे तब भी मुझे याद था, और बार बार मेरे दिल को झकझोर के रखता था। काम पर जाते और आंकते वक्त का मेरा यातायात स्कूटर से ही होता था। एक दिन मैंने ३ युवकों को एक ही बाइक पर जाते देखा। उनकी हालत ठीक नहीं थी, वे होश में नहीं थे। मैंने उनसे धीरे चलाने के लिए कहा, और तब उन्हों में मुझे अपशब्द कहे, और ये धमकी भी दी , की वो मुझे ही टक्कर मार देंगे। मई मौन रहकर अपना रास्ता देखता रहा। उन्हें देखकर मुझे मेरे मित्र की मृत्यु का वो दृश्य मेरे समक्ष नज़र आता था, पर मैं विवश था की मैं उहे कुछ कह नहीं सकता था। और फिरसे , वही हुआ , जो मैं नहीं चाहता था। अपनी बातों में मंद उन युवकों ने सामने से गुज़रती ट्रक को टक्कर मार दी, और उन तीनों में से २ लोग अपनी जान गवा बैठे। पुलिस की पूछताझ में मैंने यह बयान दिया, की वो लड़के होश में नहीं थे और इसी कारण उन्हों ने ट्रक को टक्कर मारी। मेरे बयान के चलते अदालत ने ट्रकचालाक पर लगे आरोपों को वापस ले लिया और उसे बाइज्जत बरी कर दिया। मैं कोर्ट से बाहर तो आ गया, पर मेरा मन कहता की इस बार भी मैं ही गुन्हेगार हूँ। कदाचित ईश्वर की इच्छा ही नहीं थी कि कोई मेरी बातों को सुने।

उस हातसे को १० साल बीत गए। इतने सालों में बहुत कुछ भूला हूँ मैं। अपने विद्यालय के वो दिन , अपनी पढाई , अपने सपने और बहुत कुछ। लेकिन वो दो हातसे चित्र की भाति आज भी मुझे दिखाई देते है और बार बार मेरा हृदय तड़पता है। अपने जीवन में घूम-घूमकर नियति ने फिर मुझे अपने जन्मस्थल में लाया। पता नहीं कैसे, पर मैं उसी ट्रैन में दुबारा चढ़ गया, जिसमें मुझे पिताजी ने जीवन का पाठ पढ़ाया, जिसमें मेरे नेत्रों के समक्ष मेरे मित्र की मृत्यु हुई।
इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था। ४ युवक द्वार के किनारे खड़े थे। उनकी उम्र भी शायद उतनी ही थी, जितनी उस वक्त मेरी थी। मैंने उन्हें चेतावनी भी दी , की वे ऐसा ना करे। उन्हों ने मेरा अपमान किया और मुझे अपशब्द कहे। मुझे कोई अंतर नहीं पड़ा क्योंकि मुझे तो जीवन भर में अपशब्दों की आदत सी हो गयी थी। मैं नहीं चाहता था की वही सब दुबारा हो। मैं जानता था की वही स्टेशन दुबारा आएगा, और वो आया भी। वे लोग भी उसी किनारे खड़े थे जिस ओर पुल था। मैंने ये निर्णय ले लिया की मैं उन्हें कुछ नहीं होने दूँगा। उलटी गिनती शुरू हो गयी। धीरे धीरे पुल करीब आता गया। पिछली बार की तरह ३ लोग पीछे आ पाए। मैंने चौथे को दूसरी ओर से खींचा और उसे बचा लिया। वो लड़का दंग रह गया था, और वैसे ही सब लोग हैरान थे। उसने मुझे धन्यवाद कहाँ, और उसके मित्र भी प्रसन्न थे। उसी शाम उसके माता-पिता आभार प्रकट करने मुझसे मिलने आये। उस एक पल ने मेरी ज़िंदगी को बदल दिया। मेरे सारे दुःख मानो एक क्षण में नष्ट हो गए। जो मनुष्य जीवन भर दुविधा में जीता था, वही मनुष्य आज स्वतन्त्र महसूस कर रहा था।

 

 

इस कहानी और इस घटनाक्रम का यही तात्पर्य है, कि हमें भी भी जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए, अपने बड़ों का मान करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने हमसे ज्यादा दुनिया देखी है। वे भले ही आधुनिकता के मामले में हमसे काम हो, लेकिन जब बात परिपक्वता की आती है तो हमारे बड़े-बुज़ुर्गों से इस विश्व में कोई बेहतर नहीं। उम्मीद है की आपको ये कहानी अच्छी लगी। दुबारा जरूर मिलेंगे, धन्यवाद!


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